कार्तिक शुक्ल पंचमी “लाभ-पंचमी”

कार्तिक शुक्ल पंचमी “लाभ-पंचमी”


आज कार्तिक शुक्ल पंचमी " लाभ-पंचमी " है। इसे " सौभाग्य-पंचमी " भी कहते हैं। जैन लोग इसको " ज्ञान-पंचमी " कहते हैं। व्यापारी लोग अपने धंधे का मुहूर्त आदि " लाभ-पंचमी " को ही करते हैं ।

लाभपंचमी के दिन धर्म-सम्मत जो भी धंधा शुरू किया जाता है उसमें बहुत-बहुत बरकत आती है । यह सब तो ठीक है, लेकिन संतों-महापुरुषों के मार्ग-दर्शन अनुसार चलने का निश्चय करके भगवद्भक्ति के प्रभाव से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों विकारों के प्रभाव को खत्म करने का दिन है "लाभ-पंचमी" ।

लाभ पंचमी के पाँच अमृतमय वचनों को याद रखें :
  • पहली बात : ‘भगवान हमारे हैं, हम भगवान के हैं - ऐसा मानने से भगवान के प्रीति प्रीति उत्पन्न होगी। ‘शरीर, घर, संबंधी जन्म के पहले नहीं थे । और मरने के बाद नहीं रहेंगे, लेकिन परमात्मा मेरे साथ सदैव हैं - ऐसा सोचने से आपको " लाभ-पंचमी " के पहले आचमन द्वारा अमृत पान का लाभ मिलेगा ।
  • दूसरी बात : हम भगवान की सृष्टि में रहते हैं, भगवान की बनाई हुई दुनिया में रहते हैं। तीर्थ-भूमि में रहने से पुण्य मानते हैं, तो जहाँ हम-आप रह रहे हैं। वहाँ की भूमि भी तो भगवान की है। सूरज, चन्द्रमा, हवाएँ, श्वास, धड़कन सब-के-सब भगवान के हैं, तो हम तो भगवान की दुुनिया में, भगवान के घर में रहते हैं । मगन-निवास, अमथा-निवास, गोकुल-निवास ये सब निवास ऊपर-ऊपर से हैं लेकिन सब-के-सब भगवान के निवास में ही रहते हैं। यह सबको पक्का समझ लेना चाहिए। ऐसा करने से आपके अंतःकरण में भगवद्धाम में रहने का पुण्य-भाव जगेगा ।
  • तीसरी बात : आप जो कुछ भोजन करते हैं। भगवान का सुमिरन करके, भगवान को मानसिक रूप से भोग लगाके करें । इससे आपका पेट तो भरेगा, हृदय भी भगवद्भाव से भर जायेगा ।
  • चौथी बात : माता-पिता की, गरीब की, पड़ोसी की, जिस किसी की सेवा करो तो ‘यह बेचारा है.! मैं इसकी सेवा करता हूँ.! मैं नहीं होता तो इसका क्या होता.! ऐसा नहीं सोचो; भगवान के नाते सेवा कार्य कर लो और अपने को कर्ता मत मानो ।
  • पाँचवीं बात : अपने तन-मन, बुद्धि को विशाल बनाते जाओ। घर, मोहल्ले, गाँव, राज्य, राष्ट्र से भी आगे विश्व में अपनी मति को फैलाते जाओ और ‘सबका मंगल, सबका भला हो, सबका कल्याण हो, सबको सुख-शांति मिले, सर्वे भवन्तु सुखिनः.! इस प्रकार की भावना करके अपने दिल को बड़ा बनाते जाओ ।

परिवार के भले के लिए अपने भले का आग्रह छोड़ दो, समाज के भले के लिए परिवार के हित का आग्रह छोड़ दो, गाँव के लिए पड़ोस का, राज्य के लिए गाँव का, राष्ट्र के लिए राज्य का, विश्व के लिए राष्ट्र का मोह छोड़ दो, और विश्वेश्वर के साथ एकाकार होकर बदलने वाले विश्व में सत्य-बुद्धि तथा उसका आकर्षण और मोह छोड़ दो । तब ऐसी विशाल मति जगजीत प्रज्ञा की धनी बन जायेगी ।

मन के कहने में चलने से लाभ तो क्या होगा, हानि अवश्य होगी। क्योंकि मन इन्द्रिय-अनुगामी है, विषय-सुख की ओर मति को ले जाता है। लेकिन मति को मतीश्वर के ध्यान से, स्मरण से पुष्ट बनाओगे तो वह परिणाम का विचार करेगी, मन के गलत आकर्षण से सहमत नहीं होगी ।

इससे मन को विश्रांति मिलेगी, मन भी शुद्ध-सात्त्विक होगा। और मति को परमात्मा में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा, परम मंगल हो जायेगा ।

पंo उत्तम शास्त्री ज्योतिर्विद्

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